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विकास की अवधारणा ( Concept of Development ) - Rajasthan PTET

विकास की अवधारणा ( Concept of Development )

  • विकास की प्रक्रिया एक अविरलक्रमिक तथा सतत् प्रक्रिया होती है।
  • विकास की प्रक्रिया में बालक का शारीरिकक्रियात्मकसंज्ञानात्मकभाषागतसंवेगात्मक एवं सामाजिक विकास होता है।
  • विकास की प्रक्रिया के अन्तर्गत रुचियोंआदतोंदृष्टिकोणोंजीवन-मूल्योंस्वभावव्यक्तित्वव्यवहार इत्यादि को भी शामिल किया जाता है।
बाल-विकास का तात्पर्य होता है बालक के विकास की प्रक्रिया। बालक के विकास की प्रक्रिया उसके जन्म से पूर्व गर्भ में ही प्रारम्भ हो जाती है। विकास की इस प्रक्रिया में वह गर्भावस्थाशैशवावस्थाबाल्यावस्थाकिशोरावस्थाप्रौढ़ावस्था इत्यादि कई अवस्थाओं से गुजरते हुए परिपक्वता की स्थिति प्राप्त करता है।
  • बाल विकास के अध्‍ययन में प्राय: निम्‍नलिखित बातों को शामिल किया जाता है।
  • जन्म लेने से पूर्व एवं जन्म लेने के बाद परिपक्व होने तक बालक में किस प्रकार के परिवर्तन होते हैं
  • बालक में होने वाले परिवर्तनों का विशेष आयु के साथ क्या सम्बन्ध होता है
  • आयु के साथ होने वाले परिवर्तनों का क्या स्वरूप होता है
  • बालकों में होने वाले उपरोक्त परिवर्तनों के लिए कौन-से कारक जिम्मेदार होते हैं
क्‍या बालक में समय-समय पर होने वाले उपरोक्त परिवर्तन उसके व्यवहार को किस प्रकार से प्रभावित करते हैं?
क्या पिछले परिवर्तनों के आधार पर बालक में भविष्य में होने वाले गुणात्मक एवं परिमाणात्मक परिवर्तनों की भविष्यवाणी की जा सकती है
क्या सभी बालकों में वृद्धि एवं विकास सम्बन्धी परिवर्तनों का स्वरूप एक जैसा होता है अथवा व्यक्तिगत विभिन्नता के अनुरूप इनमें अन्तर होता है
  • बालकों में पाई जाने वाली व्यक्तिगत विभिन्नताओं के लिए किस प्रकार के आनुवंशिक एवं परिवेशजन्य प्रभाव उत्तरदायी होते हैं
  • बालक मेंगर्भ में आने के बाद निरन्तर प्रगति होती रहती है। इस प्रगति का विभिन्न आयु तथा अवस्था विशेष में क्या स्वरूप होता है
  • बालक की रुचियोंआदतोंदृष्टिकोणोंजीवन-मूल्योंस्वभाव तथा उच्च व्यक्तित्व एवं व्यवहार-गुणों में जन्म के समय से ही जो निरन्तर परिवर्तन आते रहते हैं उनका विभिन्न आयु वर्ग तथा अवस्था विशेष में क्या स्वरूप होता है तथा इस परिवर्तन की प्रक्रिया की क्या प्रकृति होती है



विकास के अभिलक्षण Characteristics of Development

  • विकास एक जीवन-पर्यन्त प्रक्रिया हैजो गर्भधारण से लेकर मृत्यु-पर्यन्त तक होती रहती है।
  • विकासात्मक परिवर्तन प्राय: व्यवस्थापरकप्रगत्यात्मक और नियमित होते हैं। सामान्य से विशिष्ट और सरल से जटिल की और एकीकृत से क्रियात्मक स्तरों की ओर अग्रसर होने के दौरान प्राय: यह एक पैटर्न का अनुसरण करते हैं।
  • विकास की प्रक्रिया सतत् के साथ-साथ विछिन्न अर्थात् दोनों प्रकार से हो सकती है। कुछ परिवर्तन तेजी से होते हैं और सुस्पष्ट रूप से दिखाई भी देते हैं जैसे पहला दाँत निकलनाजबकि कुछ परिवर्तनों को दिन-प्रतिदिन की क्रियाओं में आसानी से देख पाना सम्भव नहीं होता क्योंकि वे अधिक प्रखर नहीं होतेजैसे-व्याकरण को समझना।
  • विकास बहु-आयामी होता हैअर्थात् कुछ क्षेत्रों में यह बहुत तीव्र वृद्धि दर्शाता हैजबकि अन्य क्षेत्रों में इसमें कुछ कमियाँ देखने में आती हैं।
  • विकास बहुत ही लचीला होता है। इसका तात्पर्य है कि एक ही व्यक्ति अपनी पिछली विकास दर की तुलना में किसी विशिष्ट क्षेत्र में अपेक्षाकृत आकस्मिक रूप से अच्छा सुधार प्रदर्शित कर सकता है। एक अच्छा परिवेश शारीरिक शक्ति अथवा स्मृति और बुद्धि के स्तर में अनापेक्षित सुधार ला सकता है।
  • विकासात्मक परिवर्तनों में प्राय: परिपक्वता में क्रियात्मकता के स्तर पर उच्च स्तरीय वृद्धि देखने में आती हैउदाहरणतया शब्दावली के आकार और जटिलता में वृद्धि। परन्तु इस प्रक्रिया में कोई कमी अथवा क्षति भी निहित हो सकती हैजैसे-हड्डियों के घनत्व में कमी या वृद्धावस्था में स्मृति क्षीण होना।
वृद्धि और विकाससदैव एकसमान नहीं होता। विकास के पैटर्न में प्राय: सपाटता (प्लेटियस) भी देखने में आती हैजिसमें ऐसी अवधि का भी संकेत मिलता है जिसके दौरान कोई सुस्पष्ट सुधार देखने में नहीं आता। ड विकासात्मक परिवर्तन मात्रात्मक हो सकते हैंजैसे-आयु बढ़ने के साथ कद बढ़ना अथवा गुणात्मक जैसे नैतिक मूल्यों का निर्माण।
विकासात्मक परिवर्तन सापेक्षतया स्थिर होते हैं। मौसमथकान अथवा अन्य आकस्मिक कारणों से होने वाले अस्थायी परिवर्तनों को विकास की श्रेणी में नहीं रख सकते।
विकासात्मक परिवर्तन बहु-आयामी और परस्पर सम्बद्ध होते हैं। अनेक क्षेत्रों में यह परिवर्तन एकसाथ एक ही समय पर हो सकते हैं अथवा एक समय में एक भी हो सकता है। किशोरावस्था के दौरान शरीर के साथ-साथ संवेगात्मकसामाजिक और संज्ञानात्मक क्रियात्मकता में भी तेजी से परिवर्तन दिखाई देते हैं।
विकास प्रासंगिक हो सकता है। यह ऐतिहासिकपरिवेशीय और सामाजिक-सांस्कृतिक घटकों से प्रभावित हो सकता है। माता-पिता का देहान्तदुर्घटनायुद्धभूचाल और बच्चों के पालन-पोषण के रीति-रिवाज ऐसे घटकों के उदाहरण हैं जिनका विकास पर प्रभाव पड़ सकता है।
विकासात्मक परिवर्तनों की दर अथवा गति में उल्लेखनीय व्यक्तिगत अन्तर‘ हो सकते हैं। यह अन्तर आनुवंशिक घटकों अथवा परिवेशीय प्रभावों के कारण हो सकते हैं। कुछ बच्चे अपनी आयु की तुलना में अत्यधिक पूर्व-चेतन हो सकते हैंजबकि कुछ बच्चों में विकास की गति बहुत धीमी होती है। उदाहरणतयायद्यपि एक औसत बच्चा शब्दों के वाक्य वर्ष की आयु में बोलना शुरू कर देता हैपरन्तु कुछ ऐसे बच्चे भी हो सकते हैं जो वर्ष के होने से बहुत पहले ही ऐसी योग्यता प्राप्त कर लेते हैंजबकि कुछ ऐसे बच्चे भी हो सकते हैं जो वर्ष की आयु होने तक भी पूरा वाक्य बोलने में सक्षम नहीं हो पाते। इसके अतिरिक्तकुछ बच्चे ऐसे भी हो सकते हैं जो अपनी आयु की उच्चतम सीमा से ऊपर जाकर ही बोलने में सक्षम होते हैं।



वृद्धि एवं विकास में अन्तर ( Difference between Growth and Development )

वृद्धि एवं विकास का प्रयोग लोग प्राय: पर्यायवाची शब्दों के रूप में करते हैं। अवधारणात्मक रूप से देखा जाएतो इन दोनों में अन्तर होता है।

वृद्धि –

(1) वृद्धि शब्द का प्रयोग परिमाणात्मक परिवर्तनोंजैसे-बच्चे के बड़े होने के साथ उसके आकारलम्बाईऊँचाई इत्यादि के लिए होता है।
(2) वृद्धि विकास की प्रक्रिया का एक चरण होता है। इसका क्षेत्र सीमित होता है।
(3) वृद्धि की क्रिया आजीवन नहीं चलती। बालक के परिपक्व होने के साथ ही यह रुक जाती है।
(4) बालक की शारीरिक वृद्धि हो रही है इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि उसमें विकास भी हो रहा है।

विकास –

(1) विकास शब्द का प्रयोग परिणामात्मक परिवर्तनों के साथ-साथ व्यावहारिक कार्यक्षमताव्यवहार में सुधार इत्यादि के लिए भी होता है।
(2) विकास अपने-आप में एक विस्तृत अर्थ रखता है। वृद्धि इसका एक भाग होता है।
(3) विकास एक सतत् प्रक्रिया है। बालक के परिपक्व होने के बाद भी यह चलती रहती है।
(4) बालक में विकास के लिए भी वृद्धि आवश्यक नहीं है।



मानव विकास की अवस्‍थाएँ

मानव विकास एक सतत् प्रक्रिया है। शारीरिक विकास तो एक सीमा (परिपक्वता प्राप्त करने) के बाद रुक जाता हैकिन्तु मनोशारीरिक क्रियाओं में विकास निरन्तर होता रहता है।
मनोशारीरिक क्रियाओं के अन्तर्गत मानसिकभाषायीसंवेगात्मकसामाजिक एवं चारित्रिक विकास आते हैं। इनका विकास विभिन्न आयु स्तरों में भिन्न-भिन्न प्रकार से होता है।
विभिन्न आयु स्तरों को मानव विकास की अवस्थाएँ कहते हैं।
भारतीय पनीषियों ने मानव विकास की अवस्‍थाओं को सात कालों में विभाजित किया है:
  1. गर्भावस्‍था – गर्भाधान से जन्म तक।
  2. शैशवावस्था – जन्म से वर्ष तक।
  3. बाल्यावस्था – वर्ष से 12 वर्ष तक।
  4. किशोरावस्था – 12 वर्ष से 18 वर्ष तक।
  5. युवावस्था – 18 वर्ष स 25 वर्ष तक।
  6. प्रौढ़ावस्था – 25 वर्ष से 55 वर्ष तक।
  7. वृद्धावस्था – 55 वर्ष से मृत्यु तक।
  • इस समय अधिकतर विद्वान मानव विकास का अध्‍ययन निम्‍नलिखित चार अवस्थाओं के अन्‍तर्गत करते हैं
  1. शैशवावस्था – जन्म से वर्ष तक।
  2. बाल्यावस्था – वर्ष से 12 वर्ष तक।
  3. किशोरावस्था – 12 वर्ष से 18 वर्ष तक।
  4. वयस्कावस्था – 18 वर्ष से मृत्यु तक।
शिक्षा की दृष्टि से प्रथम तीन अवस्थाएँ महत्वपूर्ण हैंइसलिए शिक्षा मनोविज्ञान में इन्हीं तीन अवस्थाओं में होने वाले मानव विकास का अध्ययन किया जाता है।



अधिगम Learning

  • अधिगम का अर्थ होता है-सीखना
  • अधिगम एक प्रक्रिया हैजो जीवन-पर्यन्त चलती रहती है एवं जिसके द्वारा हम कुछ ज्ञान अर्जित करते हैं या जिसके द्वारा हमारे व्यवहार में परिवर्तन होता है।  
  • जन्म के तुरन्त बाद से ही व्यक्ति सीखना प्रारम्भ कर देता है।
  • अधिगम व्यक्तित्व के सर्वागीण विकास में सहायक होता है। इसके द्वारा जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता मिलती है।
  • अधिगम के बाद व्यक्ति स्वयं और दुनिया को समझने के योग्य हो पाता है।
  • रटकर विषय-वस्तु को याद करने को अधिगम नहीं कहा जा सकता। यदि छात्र किसी विषय-वस्तु के ज्ञान के आधार पर कुछ परिवर्तन करने एवं उत्पादन करने अर्थात् ज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग करने में सक्षम हो गया होतभी उसके सीखने की प्रक्रिया को अधिगम के अन्तर्गत रखा जा सकता है।
  • सार्थक अधिगम ठोस चीजों एवं मानसिक द्योतकों को प्रस्तुत करने व उनमें बदलाव लाने की उत्पादक प्रक्रिया है न कि जानकारी इकट्ठा कर उसे रटने की प्रक्रिया।

परिभाषाएँ

गेट्स के अनुसार ‘अनुभव द्वारा व्यवहार में रूपान्तर लाना ही अधिगम है।
ई.ए. पील के अनुसार ‘अधिगम व्यक्ति में एक परिवर्तन हैजो उसके वातावरण के परिवर्तनों के अनुसरण में होता है।
क्रो एवं क्रो के अनुसार सीखना आदतों ज्ञान एवं अभिवृत्तियों का अर्जन है। इसमें कार्यों को करने के नवीन तरीके सम्मिलित हैं और इसकी शुरुआत व्यक्ति द्वारा किसी भी बाधा को दूर करने अथवा नवीन परिस्थितियों में अपने समायोजन को लेकर होती है। इसके माध्यम से व्यवहार में उत्तरोत्तर परिवर्तन होता रहता है। यह व्यक्ति को अपने अभिप्राय अथवा लक्ष्य को पाने में समर्थ बनाती है।
सभी बच्चे स्वभाव से ही सीखने के लिए प्रेरित रहते हैं और उनमें सीखने की क्षमता होती है।बच्चे मानसिक रूप से तैयार होंउससे पहले ही उन्हें पढ़ा देनाबाद की अवस्थाओं में उनमें सीखने की प्रवृत्ति को प्रभावित करता है। उन्हें बहुत-से तथ्य याद तो रह सकते हैं लेकिन सम्भव है कि वे न तो उन्हें समझ पाएँन ही उन्हें अपने आस-पास की दुनिया से जोड़ पाएँ।स्कूल के भीतर और बाहरदोनों जगहों पर सीखने की प्रक्रिया चलती रहती है। इन दोनों जगहों में यदि सम्बन्ध रहे तो सीखने की प्रक्रिया पुष्ट होती है।
सीखना किसी की मध्यस्थता या उसके बिना भी हो सकता है। प्रत्यक्ष रूप से सीखने से सामाजिक सन्दर्भ व संवाद विशेषकर अधिक सक्षम लोगों से संवाद विद्यार्थियों को उनके स्वयं के उच्च संज्ञानात्मक स्तर पर कार्य करने का मौका देते हैं।
सीखने की एक उचित गति होनी चाहिए ताकि विद्यार्थी अवधारणाओं को रटकर और परीक्षा के बाद सीखे हुए को भूल न जाएँ बल्कि उसे समझ सकें और आत्मसात कर सकें। साथ ही सीखने में विविधता व चुनौतियाँ होनी चाहिएँ ताकि वह बच्चों को रोचक लगें और उन्हें व्यस्त रख सके। ऊब महसूस होना इस बात का संकेत है कि उस कार्य को बच्चा अब यान्त्रिक रूप से दोहरा रहा है और उसका संज्ञानात्मक मूल्य खत्म हो गया है।



बालक के विकास की विभिन्न अवस्थाएँ एवं उनका अधिगम से सम्बन्ध


शैशवावस्था एवं इसके दौरान अधिगम –

  1. जन्म से वर्ष तक की अवस्था को शैशवावस्था कहा जाता है। इसमें जन्म से वर्ष तक बच्चों का शारीरिक एवं मानसिक विकास तेजी से होता है।
  2. शैशवावस्था में अनुकरण एवं दोहराने की तीव्र प्रवृत्ति बच्चों में पाई जाती है।
  3. इसी काल में बच्चों का समाजीकरण भी प्रारम्भ हो जाता है।
  4. इस काल में जिज्ञासा की तीव्र प्रवृत्ति बच्चों में पाई जाती है
  5. मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि से यह काल भाषा सीखने की सर्वोत्तम अवस्था है।
  6. यह काल शिक्षा की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है।

बाल्यावस्था एवं इसके दौरान अधिगम –

  1. वर्ष से 12 वर्ष तक की अवस्था को बाल्यावस्था कहा जाता है।
  2. बाल्यावस्था के प्रथम चरण से वर्ष में बालकों की लम्बाई एवं भार दोनों बढ़ते हैं।
  3. इस काल में बच्चों में चिन्तन एवं तर्क शक्तियों का विकास हो जाता है।
  4. इस काल के बाद से बच्चे पढ़ाई में रुचि लेने लगते हैं।
  5. शैशवावस्था में बच्चे जहाँ बहुत तीव्र गति से सीखते हैं वहीं बाल्यावस्था में सीखने की गति मन्द हो जाती हैकिन्तु उनके सीखने का क्षेत्र शैशवावस्था की तुलना में विस्तृत हो जाता है।
  6. मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि से इस अवस्था में बच्चों की शिक्षा के लिए विभिन्न विधियों का प्रयोग करना चाहिए।

किशोरावस्था एवं इसके दौरान अधिगम –

  1. 12 वर्ष से 18 वर्ष तक की अवस्था की किशोरावस्था कहा जाता है।
  2. यह वह समय होता है जिसमें व्यक्ति बाल्यावस्था से परिपक्वता की ओर उन्मुख होता है।
  3. इस अवस्था में किशोरों की लम्बाई एवं भार दोनों में वृद्धि होती हैसाथ ही माँसपेशियों में भी वृद्धि होती है।
  4. 12-14 वर्ष की आयु के बीच लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की लम्बाई एवं माँसपेशियों में तेजी से वृद्धि होती है एवं 14-18 वर्ष की आयु के बीच लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की लम्बाई एवं माँसपेशियाँ तेजी से बढ़ती हैं।
  5. इस काल में प्रजनन अंग विकसित होने लगते हैं एवं उनकी काम की मूल प्रवृत्ति जाग्रत होती है।
  6. इस अवस्था में किशोर-किशोरियों की बुद्धि का पूर्ण विकास हो जाता हैउनके ध्यान केन्द्रित करने की क्षमता बढ़ जाती हैस्मरण शक्ति बढ़ जाती है एवं उनमें स्थायित्व आने लगता है।
  7. इस अवस्था में मित्र बनाने की प्रवृत्ति तीव्र होती है एवं मित्रता में प्रगाढ़ता भी इस दौरान सामान्य-सी बात है। इस तरह इस अवस्था में व्यक्ति के सामाजिक सम्बन्धों में वृद्धि होती है।
  8. यौन समस्या इस अवस्था की सबसे बड़ी समस्या होती है।
  9. इस अवस्था में नशा या अपराध की ओर उन्मुख होने की अधिक सम्भावना रहती हैइसलिए इस अवस्था को जीवन के तूफान का काल भी कहा जाता है।
  10. किशोरावस्था के शारीरिक बदलावों का प्रभाव किशोर जीवन के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर पड़ता है। अधिकतर किशोर इन परिवर्तनों का सामना बिना पूर्ण ज्ञान एवं समझ के करते हैं जो उन्हें खतरनाक स्थितियों जैसे-यौन रोगोंयौन दुर्व्यवहारएचआईवी संक्रमण एवं नशीली दवाओं के सेवन का शिकार बना सकती हैं। अत: इस अवस्था में उन्हें शिक्षकोंमित्रों एवं अभिभावकों के सही मार्गदर्शन एवं सलाह की आवश्यकता पड़ती है।



विकास के विभिन्न आयाम एवं उनका अधिगम से सम्बन्ध

बाल-विकास को वैसे तो कई आयामों में विभाजित किया जा सकता हैकिन्तु बाल-विकास एवं बाल-मनोविज्ञान के अध्ययन के दृष्टिकोण है।
  1. शारीरिक विकास (Physical Development)
  2. मानसिक विकास (Cognitive or Mental Development)
  3. भाषायी विकास (Language Development)
  4. सामाजिक विकास (Social Development)
  5. सांवेगिक विकास (Emotional Development)
  6. मनोगत्‍यात्‍मक (Motor Development)

शारीरिक विकास एवं अधिगम

  1. शारीरिक विकास के अन्तर्गत बालक के शरीर के बाह्य एवं आन्तरिक अवयवों का विकास शामिल है।
  2. शरीर के बाह्य परिवर्तन जैसे ऊँचाईशारीरिक अनुपात में वृद्धि इत्यादि ऐसे शारीरिक विकास हैंजिन्हें स्पष्ट देखा जा सकता हैकिन्तु शरीर के आन्तरिक अवयवों के परिवर्तन बाह्य रूप से दिखाई तो नहीं पड़तेकिन्तु शरीर के भीतर इनका समुचित विकास होता रहता है।
  3. शारीरिक वृद्धि एवं विकास की प्रक्रिया व्यक्तित्व के उचित समायोजन और विकास के मार्ग में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
  4. प्रारम्भ में शिशु अपने हर प्रकार के कार्यों के लिए दूसरों पर निर्भर रहता हैधीरे-धीरे विकास की प्रक्रिया के फलस्वरूप वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम होता जाता है।
  5.  शारीरिक वृद्धि एवं विकास पर बालक के आनुवंशिक गुणों का प्रभाव देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त बालक के परिवेश एवं उसकी देखभाल का भी उसकी शारीरिक वृद्धि एवं विकास पर प्रभाव पड़ता है। यदि बच्चे को पर्याप्त मात्रा में पोषक आहार उपलब्ध नहीं हो रहे हैंतो उसके विकास की सामान्य गति की आशा कैसे की जा सकती है?
  6. सभी बच्चों का स्वस्थ शारीरिक विकास सभी प्रकार के विकास की पहली शर्त है। इसके लिए मूल आवश्यकताएँ जैसे- पौष्टिक आहारशारीरिक व्यायाम तथा अन्य मनोवैज्ञानिक-सामाजिक जरूरतों पर ध्यान देना आवश्यक है।
  7. शारीरिक वृद्धि एवं विकास के बारे में शिक्षकों को पर्याप्त जानकारी होनी चाहिए। इसी जानकारी के आधार पर वह बालक के स्वास्थ्य अथवा इससे सम्बन्धित अन्य समस्याओं से अवगत हो सकता है।
  8. बालक की वृद्धि एवं विकास के बारे में शिक्षकों को पर्याप्त जानकारी इसलिए भी रखना अनिवार्य हैक्योंकि बच्चों की रुचियाँ इच्छाएँ दृष्टिकोण एवं एक तरह से उसका पूर्ण व्यवहार शारीरिक वृद्धि एवं विकास पर ही निर्भर करता है।
  9. बच्चों की शारीरिक वृद्धि एवं विकास के सामान्य ढाँचे से परिचित होकर अध्यापक यह जान सकता है कि एक विशेष आयु स्तर पर बच्चों से क्या आशा की जा सकती है?



मानसिक विकास एवं अधिगम

  • संज्ञानात्मक या मानसिक विकास से तात्पर्य बालक की उन सभी मानसिक योग्यताओं एवं क्षमताओं में वृद्धि और विकास से है जिनके परिणामस्वरूप वह अपने निरन्तर बदलते हुए वातावरण में ठीक प्रकार से समायोजन करता – है और विभिन्न प्रकार की समस्याओं को सुलझाने में अपनी मानसिक शक्तियों का पर्याप्त उपयोग कर पाता है।
  • कल्‍पना करना , स्‍मरण करना, विचार करना, निरीक्षण करना, समस्या-समाधान करनानिर्णय लेना इत्यादि की योग्यता संज्ञानात्मक विकास के फलस्वरूप ही विकसित होते हैं।
  • जन्म के समय बालक में इस प्रकार की योग्यता का अभाव होता हैधीरे-धीरे आयु बढ़ने के साथ-साथ उसमें मानसिक विकास की गति भी बढ़ती रहती है।
  • संज्ञानात्मक विकास के बारे में शिक्षकों को पर्याप्त जानकारी इसलिए होनी चाहिएक्योंकि इसके अभाव में वह बालकों की इससे सम्बन्धित समस्याओं का समाधान नहीं कर पाएगा।
  • यदि कोई बालक मानसिक रूप से कमजोर हैतो इसके क्या कारण हैंयह जानना उसके उपचार के लिए आवश्यक है।
  • संज्ञानात्मक विकास के बारे में पर्याप्त जानकारी होने से विभिन्न आयु स्तरों पर पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं तथा अनुभवों के चयन और नियोजन में सहायता मिलती है।
  • किस विधि और तरीके से पढ़ाया जाएसहायक सामग्री तथा शिक्षण साधन का प्रयोग किस तरह किया जाएशैक्षणिक वातावरण किस प्रकार का होइन सबके निर्धारण में संज्ञानात्मक विकास के विभिन्न पहलुओं की जानकारी शिक्षकों के लिए सहायक साबित होती है।
विभिन्न अवस्थाओं और आयु-स्तर पर बच्चों की मानसिक वृद्धि और विकास को ध्यान में रखते हुए उपयुक्त पाठ्य-पुस्तकें तैयार करने में भी इससे सहायता मिल सकती है।



सांवेगिक विकास एवं अधिगम

संवेग जिसे भाव भी कहा जाता है का अर्थ होता है ऐसी अवस्था जो व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करती है। भयक्रोधघृणाआश्चर्यस्नेहविषाद इत्यादि संवेग के उदाहरण हैं। बालक में आयु बढ़ने के साथ ही इन संवेगों का विकास भी होता रहता है। संवेगात्मक विकास मानव वृद्धि एवं विकास का एक महत्वपूर्ण पहलू है। व्यक्ति का संवेगात्मक व्यवहार उसकी शारीरिक वृद्धि एवं विकास को ही नहीं बल्कि बौद्धिकसामाजिक एवं नैतिक विकास को भी प्रभावित करता है। के प्रत्येक संवेगात्मक अनुभूति व्यक्ति में कई प्रकार के शारीरिक और शरीर सम्बन्धी परिवर्तनों को जन्म देती है। संवेगात्मक विकास के कई कारक होते हैंइन कारकों की जानकारी अध्यापकों को होनी चाहिए। जैसे- भय का कारण क्या हैयह जाने बिना बालक के भय को दूर नहीं किया जा सकता। बालक के सन्तुलित विकास में उसके संवेगात्मक विकास की अहम भूमिका होती है।  संवेगात्मक विकास के दृष्टिकोण से बालक के स्वास्थ्य एवं शारीरिक विकास पर पूरा-पूरा ध्यान देने की आवश्यकता पड़ती है। के बालक के संवेगात्मक विकास पर पारिवारिक वातावरण भी बहुत प्रभाव डालता है। विद्यालय के परिवेश और क्रिया-कलापों को उचित प्रकार से संगठित कर अध्यापक बच्चों के संवेगात्मक विकास में भरपूर योगदान दे सकते हैं। बालकों को शिक्षकों का पर्याप्त सहयोग एवं स्नेह मिलना उनके व्यक्तित्व के विकास के दृष्टिकोण से आवश्यक है। इसी प्रकार यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि बालक के स्वाभिमान को कभी ठेस न पहुँचे। इस तरह संवेगात्मक विकास के कई पहलुओं को ध्यान में रखकर ही बालक का सर्वागीण विकास किया जा सकता है।

मनोगत्यात्मक विकास एवं अधिगम

क्रियात्मक विकास का अर्थ होता है-व्यक्ति की क्रियात्मक शक्तियोंक्षमताओं या योग्यताओं का विकास। क्रियात्मक शक्तियोंक्षमताओं या योग्यताओं का अर्थ होता है ऐसी शारीरिक गतिविधियाँ या क्रियाएँ जिनको सम्पन्न करने के लिए माँसपेशियों एवं तन्त्रिकाओं की गतिविधियों के संयोजन की आवश्यकता होती है। जैसे- चलनाबैठना इत्यादि।
एक नवजात शिशु ऐसे कार्य करने में अक्षम होता है। शारीरिक वृद्धि एवं विकास के साथ ही आयु उम्र बढ़ने के साथ उसमें इस तरह की योग्यताओं का भी विकास होने लगता है। क्रियात्मक विकास बालक के शारीरिक विकासस्वस्थ रहनेस्वावलम्बी होने एवं उचित मानसिक विकास में सहायक होता है। इसके कारण बालक को आत्मविश्वास अर्जित करने में भी सहायता मिलती है। पर्याप्त क्रियात्मक विकास के अभाव में बालक में विभिन्न प्रकार के कौशलों के विकास में बाधा पहुँचती है।
क्रियात्मक विकास के स्वरूप एवं उसकी प्रक्रिया का ज्ञान होना शिक्षकों के लिए आवश्यक है। इसी ज्ञान के आधार पर ही वह बालक में विभिन्न कौशलों का विकास करवाने में सहायक हो सकता है। क्रियात्मक विकास के ज्ञान से शिक्षकों को यह भी पता चलता है कि किस आयु विशेष या अवस्था में बालक में किस प्रकार के कौशलों की योग्यता अर्जित करने की योग्यता होती है?  जिन बालकों में क्रियात्मक विकास सामान्य से कम होता हैउनके समायोजन एवं विकास हेतु विशेष कार्य करने की आवश्यकता होती है।

विकास के विभिन्न आयामों के एक-दूसरे एवं अधिगम से सम्बन्ध –

विकास के विभिन्न आयामों का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है एवं ये सभी अधिगम को प्रभावित करते हैं। शारीरिक विकासविशेषकर छोटे बच्चों में मानसिक व संज्ञानात्मक विकास में मददगार है। सभी बच्चों की स्वतन्त्र खेलोंअनौपचारिक व औपचारिक खेलोंयोग और खेल की गतिविधियों में सहभागिता उनके शारीरिक व मनो-सामाजिक विकास के लिए आवश्यक है। मानसिक और भाषायी विकाससामाजिक विकास एवं अधिगम को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। उदाहरणस्वरूप कोई बालक अकेले या परस्पर मिलकर कोई कार्य करना चाहता है या दूसरों से कितनी अन्तःक्रिया करता है यह उसके सोचने व तर्क करने की क्षमतास्वयं व दुनिया को समझने तथा भाषा का प्रयोग करने की क्षमताओं पर निर्भर करता है।
विकास के अधिगम से सम्बन्ध को देखते हुए पाठ्यचर्या का विकास इस तरह किया जाना चाहिए जो बालक के शारीरिक व मानसिक विकास के अन्तर्सम्बन्धों के अनुकूल हो। इस प्रकार की पाठ्यचर्या को बाल-केन्द्रित पाठ्यचर्या कहा जाता है। ऐसी पाठ्यचर्या का निर्माण बालकों की विभिन्न अवस्थाओं की रुचियोंक्षमताओं तथा योग्यताओं के अनुसार किया जाता है।
बालकों का विकास एवं अधिगम एक निरन्तर प्रक्रिया हैजिसके साथ बालकों में उन सिद्धान्तों का भी विकास होता है जो बच्चे प्राकृतिक व सामाजिक दुनिया के बारे में बनाते हैं। इसमें दूसरों के साथ अपने रिश्ते के सम्बन्ध के विभिन्न सिद्धान्त भी शामिल हैंजिनके आधार पर उन्हें यह पता चलता है कि चीजें जैसी हैं वैसी क्यों हैंकारण और कारक के बीच क्या सम्बन्ध है और कार्य व निर्णय लेने के क्या आधार हैं?
अर्थ निकालनाअमूर्त सोच की क्षमता विकसित करनाविवेचना व कार्यअधिगम की प्रक्रिया के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू हैं। जैसे-जैसे बालकों की आयु और अनुभव में वृद्धि होती रहती हैवैसे-वैसे उनके इस प्रकार के अधिगम में भी वृद्धि होती रहती है।
दृष्टिकोणभावनाएँ और आदर्शसंज्ञानात्मक विकास के अभिन्न हिस्से हैं और भाषा विकासमानसिक चित्रणअवधारणाओं व तार्किकता से इनका गहरा सम्बन्ध है। जैसे-जैसे बच्चों की अधिसंज्ञानात्मक क्षमताएँ विकसित होती हैंवे अपनी आस्थाओं के प्रति अधिक जागरूक होते जाते हैं और इस तरह अपने सीखने को स्वयं नियन्त्रित व नियमित करने में सक्षम हो जाते हैं।
बच्चे व्यक्तिगत स्तर पर एवं दूसरों से भी विभिन्न तरीकों से सीखते हैं-अनुभव के माध्यम सेस्वयं चीजें करने व स्वयं बनाने सेप्रयोग करने सेपढ़नेविमर्श करने, ‘पूछनेसुननेउस पर सोचने व मनन करने से तथा गतिविधि या लेखन के जरिए अभिव्यक्त करने से। अपने विकास के मार्ग में उन्हें इन सभी तरह के अवसर मिलने चाहिए।
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