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क्रिया की परिभाषा, भेद, और उदाहरण - Rajasthan PTET

क्रिया की परिभाषा, भेद, और उदाहरण

जिस शब्द से किसी काम का करना या होना प्रकट हो, उसे क्रिया कहते हैं।
जैसे-खाना, पीना, सोना, जागना, पढ़ना, लिखना, इत्यादि ।
 
संज्ञा, सर्वनाम और विशेषण की तरह ही क्रिया भी विकारी शब्द है । इसके रूप लिंग, वचन और पुरुष के अनुसार बदलते रहते हैं ।
 
धातु:
जिस मूल शब्द से क्रिया का निर्माण होता है, उसे धातु कहते हैं। धातु में ‘ना’ जोड़कर क्रिया बनायी जाती है ।
 
जैसे-
  • खा + ना = खाना
  • पढ़ + ना = पढ़ना
  • जा + ना = जाना
  • लिख + ना = लिखना।

शब्द-निर्माण के विचार से धातु भी दो प्रकार की होती हैं-

  1. मूल धातु और
  2.  यौगिक धातु 
मूल धातु स्वतंत्र होती है तथा किसी अन्य शब्द पर आश्रित नहीं होती। जैसे-खा, पढ़, लिख, जा, इत्यादि ।
यौगिक धातु किसी प्रत्यय के संयोग से बनती है । जैसे-पढ़ना से पढ़ा, लिखना से लिखा, खाना से खिलायी जाती, इत्यादि ।
 

क्रिया के भेद (Kriya ke Bhed in Hindi Vyakaran)

कर्म, जाति तथा रचना के आधार पर क्रिया के दो भेद हैं
  1. अकर्मक क्रिया (Sakarmak Kriya) 
  2. सकर्मक क्रिया  (Akarmak Kriya)

(1) अकर्मक क्रिया (Akarmak Kriya)–

जिस क्रिया के कार्य का फल कर्ता पर ही पड़े, उसे अकर्मक क्रिया (Akarmak Kriya) कहते हैं । अकर्मक क्रिया का कोई कर्म (कारक) नहीं होता, इसीलिए इसे अकर्मक कहा जाता है ।जैसे-
  • श्याम रोता है।
  • वह हँसता है । 
इन दोनों वाक्यों में ‘रोना’ और ‘हँसना’ क्रिया अकर्मक हैं, क्योंकि यहाँ इनका न तो कोई कर्म है और न ही उसकी संभावना है । ‘रोना’ और ‘ हँसना।” क्रियाओं का फल कर्ता पर (ऊपर के उदाहरणों में ‘श्याम’ और ‘वह’ कर्ता हैं) ही पडता है ।
 

(2) सकर्मक क्रिया (Sakarmak Kriya)–

जिस क्रिया के कार्य का फल कर्ता पर न पड़कर किसी दूसरी जगह पड़ता हो, तो उसे सकर्मक क्रिया (Sakarmak Kriya) कहते हैं ।
सकर्मक क्रिया के साथ कर्म (कारक) रहता है या उसके साथ रहने की संभावना रहती है। इसीलिए इसे ‘सकर्मक” क्रिया कहा जाता है । सकर्मक अर्थात् कर्म के साथ । 
जैसे-
  • राम खाना खाता है ।
 इस वाक्य में खानेवाला राम है, लेकिन उसकी क्रिया ‘खाना’ (खाता है) का फल ‘खाना’ (भोजन) पर पड़ता है। एक और उदाहरण लें-वह जाता है । इस वाक्य में भी ‘जाना’ (जाता है) क्रिया सकर्मक है, क्योंकि इसके साथ किसी कर्म का शब्दत: उल्लेख न रहने पर भी कर्म की संभावना स्पष्ट रूप से प्रतीत होती है । ‘जाता है’ के पहले कर्म के रूप में किसी स्थान
 जैसे-घर, विद्यालय या पटना जैसे गन्तव्य स्थान की संभावना स्पष्ट है ।
कुछ क्रियाएँ अकर्मक और सकर्मक दोनों होती हैं । वाक्य में प्रयोग के आधार पर उनके अकर्मक या सकर्मक होने का ज्ञान होता है । जैसे
  • अकर्मक: उसका शरीर खुजला रहा है ।
  • सकर्मक: वह अपना शरीर खुजला रहा है ।
  • अकर्मक: मेरा जी घबराता है ।
  • सकर्मक: मुसीबत किसी को भी घबरा देती है ।

अकर्मक क्रिया से सकर्मक क्रिया बनाना:

1.एक अक्षरी या दो अक्षरी अकर्मक धातु में ‘लाना’ जोड़कर सकर्मक क्रिया बनायी जाती है । किंतु कहीं-कहीं धातु के दीर्घ स्वर को हृस्व तथा “ओकार” को “उकार” कर देना पड़ता है ।
जैसे-जीना-जिलाना, रोना-रुलाना
 
2.दो अक्षरी अकर्मक धातु में कहीं पहले अक्षर अथवा कहीं दूसरे अक्षर के हृस्व को दीर्घ करके ‘ना’ प्रत्यय जोड़कर भी सकर्मक क्रिया बनायी जाती है ।
जैसे-उडना-उड़ाना, कटना-काटना
 
3.दो अक्षरी अकर्मक धातु के दीर्घ स्वर को हृस्व करके तथा ‘आना’ जोड़कर सकर्मक क्रिया बनायी जाती है ।
जैसे-जागना-जगाना, भींगना-मिंगाना, आदि
किंतु कुछ ‘अकर्मक’ धातुओं के स्वर में बिना किसी बदलाव के ही ‘आना’ जोड़कर भी सकर्मक क्रियाएँ बनायी जाती हैं ।
 जैसे-चिढ़ना-चिढ़ाना
 
4.दो अक्षरी अकर्मक धातुओं में ‘उकार’ को ‘ओकार’ तथा ‘इकार’ को ‘एकार’ में बदलकर तथा ‘ना’ जोड़कर भी सकर्मक क्रियाएँ बनायी जाती हैं। 
जैसे -खुलना-खोलना, दिखना-देखना, आदि ।
 
5.तीन अक्षरी अकर्मक धातुओं में दूसरे अक्षर के हृस्व स्वर को दीर्घ करके तथा अंत में ‘ना’ जोड़कर सकर्मक क्रियाएँ बनायी जाती हैं ।
जैसे-उतरना-उतारना, निकलना-निकालना, उखड़ना-उखाड़ना, बिगड़ना-बिगाड़ना ।
 
6.कुछ अकर्मक धातुएँ बिना किसी नियम का अनुसरण किये ही सकर्मक में परिवर्तित की जाती हैं । 
जैसे-टूटना-तोड़ना, जुटना-जोड़ना ।
 

सकर्मक क्रिया के भेद-सकर्मक क्रिया के भी दो भेद हैं-

  1. एककर्मक तथा 
  2. द्विकर्मकः ।

(1) एककर्मक

– जिस क्रिया का एक ही कर्म (कारक) हो, उसे एककर्मक (सकर्मक) क्रिया कहते हैं जैसे-वह रोटी खाता है | इस वाक्य में ‘खाना” क्रिया का एक ही कर्म ‘रोटी’ है ।

(2) द्विकर्मक

– जिस क्रिया के साथ दो कर्म हों तथा पहला कर्म प्राणिवाचक हो और दूसरा कर्म निर्जीव हो अर्थात् प्राणिवाचक न हो । ऐसे वाक्य में प्राणिवाचक कर्म गौण होता है, जबकि निर्जीव कर्म ही मुख्य कर्म होता है । जैसे-नर्स रोगी को दवा पिलाती है। इस वाक्य में ‘रोगी” पहला तथा प्राणिवाचक कर्म है और ‘दवा’ दूसरा निर्जीव कर्म है ।
 

♦️ संरचना (बनावट के आधार पर क्रिया के भेद):

संरचना के आधार पर क्रिया के चार भेद हैं-
  1. प्रेरणार्थक क्रिया,
  2. संयुक्त क्रिया, 
  3. नामधातु क्रिया तथा
  4.  कृदंत क्रिया ।

 (1) प्रेरणार्थक क्रिया– (Prernarthak Kriya) 

जिस क्रिया से इस बात का ज्ञान हो कि कर्ता स्वयं कार्य न कर किसी अन्य को उसे करने के लिए प्रेरित करता है, उसे प्रेरणार्थक क्रिया कहते हैं ।
जैसे-बोलना- बोलवाना, पढ़ना- पढ़वाना, खाना- खिलवाना, इत्यादि ।
प्रेरणार्थक क्रियाओं के बनाने की निम्नलिखित विधियाँ हैं-
 
(a) मूल द्वि-अक्षरी धातुओं में ‘आना’ तथा ‘वाना’ जोड़ने से प्रेरणार्थक क्रियाएँ बनती हैं ।
जैसे-पढ़ (पढ़ना) – पढ़ाना – पढ़वाना
चल (चलना) – चलाना – चलवाना, आदि ।
 
(b) द्वि-अक्षरी धातुओं में ‘ऐ’ या ‘ओ’ को छोड़कर दीर्घ स्वर हृस्व हो जाता है।
जैसे – जीत (जीतना) – जिताना – जितवाना
लेट (लेटना) – लिटाना – लिटवाना, आदि ।
 
(c) तीन अक्षर वाली धातुओं में भी ‘आना’ और ‘वाना’ जोड़कर प्रेरणार्थक क्रियाएँ बनायी जाती हैं । लेकिन ऐसी धातुओं से बनी प्रेरणार्थक क्रियाओं के दूसरे ‘अ’ अनुच्चरित रहते है ।
जैसे-समझ (समझना) – समझाना – समझवाना
बदल (बदलना) – बदलाना – बदलवाना, आदि ।
 
(d) ‘खा’, ‘आ’, ‘जा’ इत्यादि एकाक्षरी आकारान्त ‘जी’, ‘पी’, ‘सी’ इत्यादि ईकारान्त, ‘चू’, ‘छू-ये दो ऊकारान्त; ‘खे’, ‘दे’, ‘ले’ और ‘से’-चार एकारान्त: ‘खो’, ‘हो’, ‘धो’, ‘बी’, ‘ढो’, ‘रो’ तथा ‘सो”-इन ओकारान्त धातुओं में ‘लाना’, ‘लवाना’, ‘वाना’ इत्यादि प्रत्यय आवश्यकतानुसार लगाये जाते हैं ।
जैसे- जी (जीना) – जिलाना – जिलवाना
 

(2) संयुक्त क्रिया (Sanyukat Kriya)

 दो या दो से अधिक धातुओं के संयोग से बननेवाली क्रिया को संयुक्त क्रिया कहते हैं ।
जैसे-चल देना, हँस देना, रो पड़ना, झुक जाना, इत्यादि ।

(3) नामधातु क्रिया–(Nam Dhatu Kriya)

संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण इत्यादि से बननेवाली क्रिया को नामधातु क्रिया कहते हैं।
जैसे-हाथ से हथियाना, बात से बतियाना, दुखना से दुखाना, चिकना से चिकनाना, लाठी से लठियाना, लात से लतियाना, पानी से पनियाना, बिलग से बिलगाना, इत्यादि । ये संज्ञा या विशेषण में “ना” जोडने से (जैसे-स्वीकार-स्वीकारना, धिक्कार-धिक्कारना, उद्धार-उद्धारना, इत्यादि) तथा हिंदी शब्दों के अंत में ‘आ’ करके और आदि ‘आ’ को हृस्व करके (जैसे-दुख-दुखाना, बात—बतियाना, आदि) बनायी जाती हैं ।

(4) कृदंत क्रिया-(Kridant Kriya)

 कृत्-प्रत्ययों के संयोग से बनने वाले क्रिया को कृदंत क्रिया कहते हैं।
 जैसे – चलता, दौड़ता, भगता हँसता.
 

प्रयोग के आधार पर क्रिया के अन्य रूप:

  1. सहायक क्रिया (Sahayak Kriya)
  2. पूर्वकालिक क्रिया (Purvkalik Kriya)
  3. सजातीय क्रिया (Sajatiya Kriya)
  4. द्विकर्मक क्रिया (Dvikarmak Kriya)
  5. विधि क्रिया (Vidhi Kriya)
  6. अपूर्ण क्रिया (Apurn Kriya)
  • (a) अपूर्ण अकर्मक क्रिया (Apurn Akarmak Kriya)
  • (b) अपूर्ण सकर्मक क्रिया (Apurn Sakarmak Kriya)

(1) सहायक क्रिया-(Sahayak Kriya) 

मुख्य क्रिया की सहायता करनेवाली क्रिया को सहायक क्रिया कहते हैं ।
जैसे- उसने बाघ को मार डाला ।
 
सहायक क्रिया मुख्य क्रियां के अर्थ को स्पष्ट और पूरा करने में सहायक होती है । कभी एक और कभी एक से अधिक क्रियाएँ सहायक बनकर आती हैं । इनमें हेर-फेर से क्रिया का काल परिवर्तित हो जाता है ।
जैसे- 
  • वह आता है ।
  • तुम गये थे ।
  • तुम सोये हुए थे ।
  • हम देख रहे थे ।
 
इनमे आना, जाना, सोना, और देखना मुख्य क्रिया हैं क्योंकि इन वाक्यों में क्रियाओं के अर्थ प्रधान हैं ।
शेष क्रिया में- है, थे, हुए थे, रहे थे– सहायक हैं। ये मुख्य क्रिया के अर्थ को स्पष्ट और पूरा करती हैं ।

(2) पूर्वकालिक क्रिया-(Purvkalik Kriya) 

जब कर्ता एक क्रिया को समाप्त करके तत्काल किसी दूसरी क्रिया को आरंभ करता है, तब पहली क्रिया को पूर्वकालिक क्रिया कहते हैं ।
जैसे- वह गाकर सो गया।
मैं खाकर खेलने लगा ।

(3) सजातीय क्रिया-(Sajatiya Kriya)

 कुछ अकर्मक और सकर्मक क्रियाओं के साथ उनके धातु की बनी हुई भाववाचक संज्ञा के प्रयोग को सजातीय क्रिया कहते हैं । जैसे-अच्छा खेल खेल रहे हो । वह मन से पढ़ाई पढ़ता है । वह अच्छी लिखाई लिख रहा है ।

(4) द्विकर्मक क्रिया-(Dvikarmak Kriya) 

कभी-कभी किसी क्रिया के दो कर्म (कारक) रहते हैं । ऐसी क्रिया को द्विकर्मकक्रिया कहते हैं । जैसे-तुमने राम को कलम दी । इस वाक्य में राम और कलम दोनों कर्म (कारक) हैं ।

(5) विधि क्रिया-(Vidhi Kriya)

जिस क्रिया से किसी प्रकार की आज्ञा का ज्ञान हो, उसे विधि क्रिया कहते हैं । जैसे-घर जाओ । ठहर जा।

(6) अपूर्ण क्रिया-(Apurn Kriya)

जिस क्रिया से इच्छित अर्थ नहीं निकलता, उसे अपूर्ण क्रिया कहते हैं। 
इसके दो भेद हैं- 
  1. अपूर्ण अकर्मक क्रिया तथा 
  2. अपूर्ण सकर्मक क्रिया ।
(a) अपूर्ण अकर्मक क्रिया-(Apurn Akarmak Kriya) कतिपय अकर्मक क्रियाएँ कभी-कभी अकेले कर्ता से स्पष्ट नहीं होतीं । इनके अर्थ को स्पष्ट करने के लिए इनके साथ कोई संज्ञा या विशेषण पूरक के रूप में लगाना पड़ता है। ऐसी क्रियाओं को अपूर्ण अकर्मक क्रिया कहते हैं। जैसे – वह बीमार रहा । इस वाक्य में बीमार पूरक है।
(b) अपूर्ण सकर्मक क्रिया–(Apurn Sakarmak Kriya) कुछ संकर्मक क्रियाओं का अर्थ कर्ता और कर्म के रहने पर भी स्पष्ट नहीं होता । इनके अर्थ को स्पष्ट करने के लिए इनके साथ कोई संज्ञा या विशेषण पूरक के रूप में लगाना पडता है । ऐसी क्रियाओं को अपूर्ण सकर्मक क्रिया कहा जाता है ।
जैसे-आपने उसे महान् बनाया । इस वाक्य में ‘महान् पूरक है.
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